SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२-सम्यक्त्वपराक्रम (३) ही प्रसिद्धि की इच्छा रहती है। हृदय में सच्ची अनुकम्पा हो तो नाम की इच्छा नही होती । आनन्द श्रावक के पास बारह करोड स्वर्ण-मोहरों का धन था । उनमे से वह चार करोड स्वर्ण मोहरो से व्यापार करता था । उसके पास चालीस हजार गायें थी । जब उसने भगवान् के दर्शन किये तो भगवान् का उपदेश सुनकर उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मै अव धन आदि की वृद्धि नहीं करू गा इस प्रतिज्ञा के पश्चात् भी उसका चार करोड मोहरो का व्यापार चालू रहा और चालीस हजार गाये भी बनी रही । गायो मे वृद्धि होना स्वाभाविक है, फिर भी उसका त्याग भग नही हुआ यह एक विचारणीय प्रश्न है । शास्त्र मे ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया है कि किस कारण उसकी सम्पत्ति मे और उसकी गायो में वृद्धि नहीं हुई ? और कैसे उसका त्याग भग नही हुआ ? परन्तु इसके कारण पर विचार करने से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आनन्द श्रावक बिना मुनाफे का व्यापार करता था अथवा वढी हुई सम्पत्ति दान मे देता था । उसे कोई मनुष्य गरीब दिखाई देता तो उसे गाय दान कर देता था। इस प्रकार उसको सम्पत्ति तया गायो का परिमाण भी बराबर रहता और त्याग की रक्षा के साथ दान आदि धर्म का भी पालन हो जाता था। कहने का आशय यह है कि आनन्द श्रावक ने दानी होते हुए भी दानियो को नामावली मे अपना नाम प्रसिद्ध नही किया था । इतना ही नही वरन् शास्त्र मे उसके इस दान का वर्णन तक नहीं किया गया है । मगर यह बात
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy