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________________ १०४-सम्यक्त्वपराक्रम (३) से किया गया है. इस सम्बन्ध में स धारण विचार किया जा चुका है। यहां उस पर थोडा और विचार कर लेना है। मुक्ति के विषय मे भी कुछ लोगो की अलग मान्यता है । मुक्ति के विषय मे जो विपरीत अर्थ किया जाता है, उससे अपने कथन को पृथक् रखने के लिए ही सिद्ध और बुद्ध के साथ 'मुक्त' शब्द का व्यवहार किया गया है । मनुष्य का जीवन न केवल बडे हथियार से ही, वरन् छोटी-सी सुई से भी नष्ट हो सकता है, उसी प्रकार माधारण बात की भिन्नता से भी सिद्धान्त मे अन्तर पड़ जाता है और उसका खडन हो सकता है जब कुछ लोग किसी शब्द का अर्थ भिन्न प्रकार का अथवा उलटा करने लगते हैं तब विपरीत अर्थ का निवारण करके सच्चा अर्थ बतलाना ज्ञानियो का कर्तव्य हो जाता है। इसी कर्तव्य का पालन करने के लिए शास्त्रकारो ने सिद्ध और बुद्ध कहने के साथ मुक्त शब्द का भी प्रयोग किया है । कुछ लोगो की ऐसी मान्यता है कि आत्मा को कर्मबध ही नही होता । जैनशास्त्र यह बात नहीं मानते । जैनशास्त्र कहते है अगर आत्मा को कर्मबध न होता तो वह मुक्त किस प्रकार हो सकता है ? आत्मा मुक्त होता है, तो वह पहले कर्म-बन्धन से बन्धा हुआ होना ही चाहिए । यही बात स्पष्ट करने के लिए 'मुक्त' शब्द का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार परिनिर्वाण को प्राप्त होने और सिद्ध में कोई अन्तर नहीं। परन्तु कुछ लोग निर्वाण का अर्थ निराला ही करते है । बौद्ध लोग निर्वाण का अर्थ दीप-निर्वाण के समान करते हैं । अर्थात् जैसे दीपक बुझ जाने के बाद वह
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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