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________________ ५६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) कहने से राजपरुप से भिन्न परुष का बोध होता है। 'अहिंसा' पद को उत्तर पद-प्रधान मानकर उसमे किसी दूसरी हिसा का ग्रहण करना उचित नही है, क्योकि हिसा चाहे कोई भी क्यो न हो, कल्याणकर नही हो सकती । शास्त्रकार अहिंसा को ही कल्याणकारिणी मानते है । ऐसी दशा मे अहिसा शब्द का 'दूसरे प्रकार की हिंसा' अर्थ नही माना जा सकता । इस प्रकार 'अहिंसा' गव्द मे उत्तर पद की प्रधानता भी नहीं मानी जा सकती । नत्र समास मे कही-कही अन्य पदार्थ की प्रधानता भी देखी जाती है। जैसे- 'अगोष्पद' शब्द मे अन्य पदार्थ की प्रधानता है । ' अगोष्पद' शब्द कहने से 'जहा गाय का पैर न हो ऐसा वन या प्रदेश' अर्थ लिया जाता है । इस प्रकार 'अगोष्पद' शब्द मे अन्य पदार्थ ( वन-प्रदेश ) की प्रधानता है। अगर अहिसा शब्द मे अन्य पदार्थ की प्रधानता मानी जाये तो · अहिंसा' का अर्थ होगा-ऐसा मनुष्य जिसमें हिसा नही है ।' अर्थात् जिस पुरुप मे हिसा नहीं है वह पुरुष 'अहिसा' कहलाएगा। परन्तु पुरुप द्रव्य है, क्रियाविशेप नही है और अहिसा क्रियाविशेष है। अहिंसा व्रतरूप है परन्तु पुरुष व्रतरूप नही हो सकता । अतएवः 'अहिसा' मे अन्य पुरुप की प्रधानता मानना भी युक्तिसंगत नही है। नत्र समास मे कही-कही 'उत्तर पदार्थ का विरोधी' ऐसा अर्थ भी होता है । जैसे 'अमित्र' शब्द मे उत्तर पदार्थ का विरोधी अर्थ है । 'अमित्र' शव्द से मित्र का विरोधी अर्थात् शत्रु अर्थ प्रतीत होता है । ' अहिसा' शब्द का अर्थ भी इसी प्रकार-उत्तर पदार्थ का विरोधी करना चाहिए । अर्थात यह मानना चाहिए कि जो हिंसा का विरोधी हो, वह अहिसा
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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