SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८-सम्यक्त्वपराक्रम (२) मेरे अज्ञान के कारण ही यह हुआ है । मुझ में अपूर्णता न होती तो यह प्रसग ही क्यो उपस्थित होता?' इस प्रकार अपने अज्ञान का विचार करते-करते सारे ससार का विचार कर डाला कि अज्ञान ने क्या-क्या अनर्थ नही किये हैं ? अज्ञान ने मुझे ससार मे इतना घुमाया है। इस प्रकार अज्ञान की निन्दा और अपनी भूल के पश्चात्ताप के कारण उनमे ऐसे उज्ज्वल भाव का उदय हुआ कि अज्ञान का सर्वथा नाश होगया और केवलज्ञान प्रकट हो गया । केवलज्ञान प्रकट हो जाने पर भी सती मृगावती खडी ही रही। इतने मे उन्होने अपने ज्ञान से देखा कि एक काला साप उसी ओर जा रहा है, जिस ओर महासती चन्दनवाला हाथ को तकिया बनाकर सो रही हैं। हाथ हटा न लिया जाये तो सम्भव है, साप काटे विना नही रहेगा। साप ने काट खाया तो कितना घोर अनर्थ हो जायेगा ! इस प्रकार विचार कर साप का मार्ग रोकने वाला महासती चन्दनवाला का हाथ हटा कर एक भोर कर विया । हाथ हटते ही चन्दनवाला की आख खुली। आख खुलते ही उन्होने पूछा'मेरा हाथ किसने खीचा ?' मृगावती बोली 'क्षमा कीजिए। आपका हाथ मैने हटाया है।' चन्दनवाला ने फिर पूछा'किसलिए हाथ हटाया है ?' मृगावती ने उत्तर दिया- 'कारणवश हाथ हटाने से आपकी निद्रा भग हो गई । आप मेरा यह अपराध क्षमा करे ।' चन्दनबाला ने कहा- 'तुम अभी तक जाग ही रही हो?' मृगावती ने उत्तर दिया-'अब निद्रा लेने की आवश्यकता ही नही रही ।' चन्दनबाला ने पूछा‘पर हाथ हटाने का क्या प्रयोजन था ?' मृगावती ने कहा'इस ओर से एक काला साप आ रहा था । आपका हाथ
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy