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________________ पांचवां बोल-१६ का त्याग करने के लिए ही आलोचना करना वास्तविक आलोचना है। मान लीजिए, आपको जगल के निकट मार्ग मे होकर कही जाना है । आपको भय है कि अमुक व्यक्ति हमारे मार्ग मे वाधा खडी करेगा । ऐसी अवस्था मे आपको एक साथी मिल गया, जो बाधा खडी करने वाले को भगा सकता है। अब आप उस साथी की सहायता लेंगे या नही ? इसी प्रकार माया मोक्षमार्ग मे विघ्न खडा करती है । इसे हटाने के लिए आलोचना की सहायता लेनी चाहिए। माया के अनेक रूप हैं । फिर भी सक्षेप मे उसके चार भेद किये हैं: (१) अनन्तानुबन्धी माया (२) अप्रत्याख्यानी माया (३) प्रत्याख्यानी माया (४) सज्वलन माया। अन्य धर्मों के शास्त्रो मे भी माया का विस्तृत वर्णन किया गया है और वहा अखिल ब्रह्माण्ड को माया और ब्रह्म से बना हुआ बतलाया है । परन्तु जैनशास्त्र प्रकृति को माया कहता है। एक विशेष प्रकार की प्रकृति माया है ।। , हमारे भीतर किस प्रकार की माया है, यह बात तो अपने आप ही जानी जा सकती है। बहुत से लोग अपनी बुराइया छिपाकर उलटे अपनी प्रशसा करते हैं, जिससे दूसरे 1 लोग उन्हे अच्छा समझें । मगर ऐसा करना गूढ माया है। . लोगो को ठगने वाली माया से आत्मा का कल्याण कदापि नही हो सकता । माया की अधिकता ग्रामो की अपेक्षा नगरो में खब । देखी जाती है । माया को दृष्टि से एक ग्रामीण अच्छा कहा
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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