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________________ सत्तरहवां बोल-२३५ है । पर वास्तविकता ऐसी नही है । विजयी, पराजित से अधिक भयभीत रहता है, क्योकि उसके मन में सदैव यह शका बनी रहती है कि पराजित शत्रु कही वलवान् होकर वैर भैजाने के लिए चढाई न कर दे ! मान लीजिए, एक राजा ने किसी मनुष्य को कैद कर लिया । अव विचार कीजिए, भय किसे अधिक है ? राजा को या कैदी को ? राजा सदैव भयभीत रहता है कि कैदी कही छूट न जाये और वैर का बदला न ले बैठे | इस प्रकार कैदी की अपेक्षा कैद करने वाले को अपेक्षाकृत अधिक भय वना रहता है । तुम धनवान् हो और हमारे पास धन नही है। विचार करो भय किसे ज्यादा है ? तुम्हे भय है या हमें ? धन होने के कारण तुम दिन-रात भय से व्याकुल रहते हो। भयजनक धन का त्याग करने पर ही तुम निर्भय वन सकते हो। चडप्रद्योत को आश्वासन देकर उदायन निर्भय हआ। उदायन की यह उदारता देख चडप्रद्योत की आखो से आस बहने लगे । उसने कहा - मैंने आपका अपराध किया और उस पर भी उद्दण्डतापूर्वक उत्तर दिया। इसी कारण आपको इतना कष्ट सहन करना पडा, फिर भी आपकी उदारता धन्य है । आपकी इस उदारता से मैं इतना प्रभावित ह कि अब अगर आप मुझे कुछ भी न लौटाए तो भी मेरे हृदय मे आपके प्रति वैरविरोध नही है। सवत्सरी के दूसरे दिन उदायन ने चडप्रद्योत को मुक्त करते हुए कहा-यह सवत्सरी महापर्व का ही प्रताप है कि
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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