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________________ २१६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) पाप का विशोधन होता है और जीव निरतिचार बनता है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र को मर्यादा का उल्लघन होना अतिचार कहलाता है । प्रायश्चित्त से अतिचार मिट जाता है और जीव निरतिचार बनता है । भगवान् द्वारा दिये गये उत्तर में यह पाठ आया है सम्मं च ण पायच्छित्त पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ। इस पाठ का अर्थ यह है कि आगमोक्त विधि से प्रायश्चित्त करने वाला जीव कल्याणमार्ग और उसके फल का विशोधन करता है। सम्यग्दर्शन मार्ग है और ज्ञानादि गुण उसका फल है। प्रायश्चित्त से यह मार्ग और उसके फल की विशुद्धि होती है । मगर यहा प्रश्न उपस्थित होता है कि ज्ञान से दर्शन होता है या दर्शन से ज्ञान होता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि निश्चय से तो दर्शन से ज्ञान होता है परन्तु व्यवहार मे ज्ञान से दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। यहा निश्चय-नय को दृष्टिगोचर रखकर कहा गया है कि दर्शन मार्ग है और ज्ञान उसना फल है, क्योकि दर्शन से रहित ज्ञान प्रमाण नहीं माना जाता । जिस ज्ञान के साथ सम्यग्दर्शन हो वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, अन्यथा वह अज्ञान है। भगवान् के दिये हुए उत्तर मे ऐसा पाठ आया है कि 'पायार च पायारफलं च धाराहेइ ।' अर्थात् जीव आचार और उसके फल का भी आराधक बनता है । आचार अर्थात् सयम का फल मोक्ष है।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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