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________________ १४४-सभ्यक्त्वपराक्रम (२) से दोष आना आत्मा का अपने स्थान से पतित होना है।। उस पतित स्थान पर से आत्मा को फिर वापिस लौटाना और अपने स्थान पर अर्थात् व्रतपालन में स्थिर करना प्रतिक्रमण कहलाता है। आत्मा जब व्रतो को अगीकार करता है तो सावधानी से ही अगीकार करता है, परन्तु फिर प्राकृतिक दुर्बलता के कारण या छद्मस्थता के कारण व्रतो का पालन करने में किसी न किसो प्रकार की भूल हो जाना सम्भव है। भगवान ने अपने ज्ञान से यह बात जानकर आज्ञा दी है कि मेरे शासन के साधु-साध्वियो को प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए, क्योकि इस काल में यह सम्भव नहीं है कि उनके व्रतो मे कोई भी दोष न लगे । अतएव नियमित रूप से प्रतिक्रमण करना ही चाहिए । पूज्य श्री श्रीलालजी महाराज बहुत बार कहा करते थे कि पक्का मकान थोडे दिनो तक सभाला न जाये और उस मकान में जब कोई छिद्र दृष्टिगोचर हो तव छिद्र को ढक दिया जाये तो उस मकान के तत्काल पड़ जाने की सम्भावना नहीं रहती और न उसे और कोई हानि होने का डर रहता है, परन्तु जो मकान कच्चा होता है उसे निरन्तर सम्भालने की आवश्यकता बनी रहती है और कही जरासा छिद्र नजर आया कि तत्काल मून्द देना आवश्यक हो जाता है । इसी प्रकार बीच के वाईस तीर्थङ्कारो के शासन के साधुओ के व्रत पक्के मकान सरीखे होते है। अतएव जव वे अपने व्रतो मे छिद्र देखते हैं तो प्रतिक्रमण ‘करते है, छिद्र नही देखते तो प्रतिक्रमण भी नहीं करते । परन्तु चौबीसवे तीर्थडर के साधुओ के व्रत कच्चे मकान
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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