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________________ २ - सम्यक्त्वपराक्रम (२) हो जाती है । अतएव आलोचना करने मे कभी प्रमाद नही करना चाहिए । व्याख्यान आलोचना से होने वाले लाभो पर विचार करने से पहले इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि आलोचना का अधिकारी कोन है ? और आलोचना का अर्थ क्या है ? विनयवान् ही आलोचना का पात्र है, क्योकि विनम्र वने बिना आलोचना का बोधपाठ जीवन में उतारा नही जा सकता । विनयसमाधि आलोचना की भूमिका है । शास्त्र मे विनय समाधि का वर्णन करते हुए कहा गया है चउविहा खलु विषयसमाही भवइ, तं जहा -प्रणुसासयंतो सुस्सूसइ, सम्मं च पडिवज्जइ, वयमाराहयइ, न य भवइ, अत्त संपगाहिए । उल्लिखित सूत्र मे आई हुई विनय समाधि की चार वाते जीवन मे अपनाने से ही आलोचना की भूमिका तैयार होती है । विनयसमावि की चार वातो मे से पहली बात यह है कि गुरु का अनुशासन मानना चाहिए अर्थात् प्रसन्नतापूर्वक गुरु की शिक्षा श्रवण करना चाहिये । दूसरी वात है गुरु की शिक्षा को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करना । तीसरी बात - शास्त्र और गुरु के वचनो की पूर्ण आराधना करना और चौथी बात - निरभिमानी होना । जिस व्यक्ति मे विनयसमाधि की यह चार वाते पाई जाती है, वही व्यक्ति आलोचना करने के योग्य वन सकता है । और जो विनयशील होता है, उसमे इन चार वातो का होना स्वाभाविक ही है ।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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