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________________ ७४-सम्यक्त्वपराक्रम (१) लम्बे समय तक एक पैर ऊपर किये खडा रहना कितना कष्टकर था ? मगर उसने ऐसा करने मे कष्ट के बदले आनन्द ही माना। इसका परिणाम यह हुआ कि वह हाथी के भव से तिर्यंच गति से निकल कर राजा श्रेणिक के घर पुत्र रूप मे पैदा हुआ और अन्त में भगवान महावीर का अन्तेवासी (शिष्य) वना । जव इस प्रकार का दयाभाव हृदय में प्रकट हो तो समझना चाहिए कि मुझमे सम्यक्त्व है । तुम्हे सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हमारे मजा-मौज के खातिर कितने जीवो को किस प्रकार कष्ट पहुंच रहा है । इस बात का विचार करके धर्म-अधर्म का विवेक करो। इसी मे तुम सब का कल्याण है। सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा- 'हे आयुज्मन् जम्बू! यह सम्यक्त्वपराक्रम अध्ययन मैंने भगवान् से सुना है।' सम्यक्त्व कहो या समकित, अर्थ एक ही है । सम्यक्त्व गुणवाचक शब्द है, परन्तु गुण और गुणी के अभेद से यह पराक्रम समकिती का पराक्रम समझना चाहिए। अथवा यह मानना चाहिये कि इस अध्ययन मे समकितो का पराक्रम बतलाया गया है। शास्त्र मे कभी गुण को प्रधानता दी जाती है और कभी गुणी मुख्य होता है। परन्तु गुणी कहने से गुण का और गुण कहने से गुणी का ग्रहण हो जाता है। ससार-व्यवहार मे भी किसी का सम्वोधन करने के लिए कभी-कभी गुण का आश्रय लिया जाता है और कभी-कभी गुणी का नाम लिया जाता है । इतना ही नही वरन् जब किसी की अधिक प्रशसा करनी होती है तव गुणी के नाम का लोप करके गुण को ही प्रधा
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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