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________________ ६२-सम्यक्त्वपराक्रम (१) परमात्मा के इन गुणो को एक बार भी हृदय में धारण कर ले तो वह भववन्धन से सदा के लिए छुटकारा पा सकता है । पूर्व भव मे आत्मा ने ऐसा नहीं किया, मगर हे आत्मा । अब ऐसा कर । प्रभुता चाहना तो आत्मा का स्वभाव है, मगर भूल यह हो रही है कि आत्मा अपने भीतर विद्यमान प्रभुता को भूल रहा है और बाहरी प्रभुता मे फंस गया है। इसी कारण उसे प्रभुता नही मिलती; यही नही वरन वह वन्धन मे पडा हुआ है । इसलिए अब बाहर की प्रभुता के फेर मे न पडकर आन्तरिक ऐश्वर्य प्रकट करे तो उसका कल्याण होने मे विलम्ब नही लगेगा। ___ जगत का कल्याण करने के लिए ही भगवान ने यह वाणी फरमाई है । अतएव यह वाणी हृदय मे उतारना चाहिए । भगवान् महावीर ने साढे बारह वर्ष तक तीव तपश्चर्या करके और अनेक कष्ट सहन करके अपने समस्त आवरण दूर किये और तत्पश्चात् ही सिद्धान्त की वाणी उच्चारी । वही वाणी सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कही और आज परम सौभाग्य मे हम लोगो को इसे सुनने का अवसर मिला । अतएव हमे आत्मा को सावधान करना चाहिए कि-'हे आत्मा । तू इस सिद्धान्त-वाणी का त्याग करके कहाँ भटक रही है ! तझे तो ऐसा दुर्लभ सुयोग मिल गया है तो फिर इसे क्यो गॅवा रहा है ?' सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा- 'हे आयुष्मन् जम्बू । भगवान् ने इस प्रकार कहा है ।' अथवा 'हे जम्बू ! आयुष्मान भगवान् ने इस प्रकार कहा है।' आयुष तो तुम्हे भी प्राप्त है और भगवान् को भी प्राप्त था किन्तु दोनो के आयुप् में कुछ अन्तर है या नहीं?
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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