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________________ २५४-सम्यक्त्वपराक्रम (१) लाभ ही होगा । इस प्रकार विचार कर विनयवान् व्यक्ति प्रशस्त विनयधर्म पर स्थिर रहता है ।। इस प्रकार विनयमूलक धर्म, सिद्धि प्राप्त करने मे पथ-प्रदर्शक होता है । अगर तुम इस विनयमूलक धर्म का पालन करने में तन-मन से प्रवृत्त होओगे तो तुम्हे भी अवश्य सिद्धि प्राप्त होगी। तुम प्रातःकाल जिन परमात्मा का स्मरण करते हो उन्होने भो विनय मुलक धर्म द्वारा ही आत्मा का कल्याण किया था उन महापुरुपो ने आत्मकल्याण के साथ जगत् कल्याण करने का भी ध्यान रखा • था । गीता में कहा है - न मे पार्थास्ति कर्त्तव्य त्रिषु लोकेषु किञ्चन । नानवाप्तमवाप्तव्य वर्त एव च कर्मणि ॥३-२१ ॥ पूर्ण महापुरुष के लिए कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, तथापि वह क्रिया करना छोड नही बैठते है । भगवान् महावीर कृत्यकृत्य हो गये थे, फिर भी उन्होने जनपदविहार करके जय के कल्याण का प्रयत्न किया था । इस प्रकार महान् पुरुष समस्त कार्य कर चुकने पर भी कार्य करना त्यागत नही हैं । क्योकि अगर वह कार्य करना छोड दें तो उनकी देखादेखी दूसरे लोग भी ऐसा ही करने लगे। साधारण जनता तो महान् पुरुषो का अनुकरण ही करना जानती है । साधारण लोग उसी मार्ग पर चलते हैं, जिस पर महापुरुष चलते हो । अतएव तुम्हे किसी भी समय धर्मकार्य का त्याग करना उचित नही है । धर्मकार्य करते रहने से जनता के समक्ष धर्मकार्य का ही आदर्श रहेगा। बड़े आदमी धर्म पर प्रीति रखेंगे तो दूसरे भी ऐसा ही
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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