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________________ २५२-सम्यक्त्वपराक्रम (१) संघ में इस प्रकार का भेदभाव नहीं है । यह चारो श्रमणसघ के भेद हैं । यह सच है कि साधु, श्रावको की अपेक्षा आचारधर्म का पालन करते हैं, फिर भी श्रद्धा की दृष्टि से सब समान ही हैं और सत्र श्रमणसव मे ही सम्मिलित है। श्रमणसघ अर्थात् श्रमण भगवान महावीर का सघ । • सघ के यह चारो अग सभी कार्य सिद्ध कर सकते है और चारो के होने पर ही सव कार्य सिद्ध हो सकते हैं । यह भगवान् का कथन है । यद्यपि प्रत्येक विभाग अपना-अपना कार्य करता है किन्तु उसमे भी आपस की सहायता की आव. श्यकता रहती ही है । मस्तक का काम मस्तक करता है. और पैर का काम पैर करता है । तथापि मस्तक को पर के लिए और पैर को मस्तक के लिए यही समझना चाहिए कि यह काम मेरा ही है । इसी प्रकार सघ मे भी ऊँचनीच का भेद मानकर अनैक्य उत्पन्न करना योग्य नही है। सूत्र में कहा है कि चौथा व्रत भग करने वाले साध को 'आठवा प्रायश्चित्त आता है लेकिन सघ मे रहते हुए सघ 'मे तथा कुल मे रहते हुए कुल, मे फूट पैदा करने वाला साधु दशवे प्रायश्चित्त का भागी होता है । इस प्रकार संघ मे फट एव अनैक्य पैदा करने का अपराध चौथा व्रत भग करने के अपराध से भी गुरुत्तर है। इसका कारण भी स्पष्ट है। चौथे व्रत को भग करने वाला अपनी ही हानि करता है परन्तु सघ मे अनैक्य उत्पन्न करने वाला सम्पूर्ण सघ की * और धर्म की भी हानि करता है । । । कहने का मूल आशय यह है कि उच्च-नीच की कल्पित भावना से ऊपर उठकर जो मनुष्य विनय की आराधना करता है वही आत्मकल्याण' साध सकता है । वास्तव
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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