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________________ चौथा बोल-२४६ सुखी रहना सुगति है, परन्तु अनासातना द्वारा पौद्गलिक सुखो की आकाक्षा कदापि नही करना चाहिए । मनुष्य या देव होकर सुखी बनने का कार्य तो पुण्य से भी हो सकती है । इसीलिए शास्त्रकार यहा तक कहते है कि पुण्य से मनुष्यभव और देवभव मिल सकते हैं, पर अनासातना गुण प्रकट होने से सिद्धिरूपी सुगति प्राप्त होती है। .. यहां मनुष्यगति और देवगति सुगति कही गई है ! मेरे खयाल से, यहा कारण मे कार्य का उपचार किया गया है । मनुष्यगति और देवगति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है और इस कारण यह दोनो गतिया मोक्षप्राप्ति मे परम्परा-कारण हैं। मोक्षरूपी सुगंति का कारण होने से. इन गतियो को भी सुगति कहां है । यही कारण में कार्य का उपचार है। बहुतसे देव या मनुष्य देवगति या मनुष्यगति प्राप्त करके भी आत्मिक अकल्याण का कार्य कर बैठते हैं और इसी कारण पुण्य का क्षय होने पर वे पतित हो जाते हैंअधोगति मे जाते हैं। इन पतित होने वाले देवो या मनुष्यो के लिए उनकी देवगति या मनुष्यगति भी सुंगति नही है । ' परमात्मा के आराधक के विषय मे भगवान ने कहा है कि वह जघन्य उसी भव मे मोक्ष जाता है और उत्कृष्ट .१५ भवो मे, मगर वह नीचे नहीं गिरता । जैसे महल की एक-एक सीढी चढकर महल मे प्रवेश किया जाता है और थोडी सीढिया चढने से भी महल मे पहुचने का मार्ग तय होता है, उसी प्रकार सिद्धिरूप सुगति प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ते जाना चाहिए । यह भी सुगति के मार्ग मे जाना
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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