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________________ चौथा बोल-२२६ कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार व्यवहार मे सहधर्मी की सहायता की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार धर्म का पालन करने में भी सहधर्मों की सहायता आवश्यक है। जिस प्रकार तुम हमारे साधर्मी हो, उसी प्रकार श्रावक-श्रावक भी आपस मे सहधर्मी हैं । श्रावको को भी पारस्परिक सहायता की अपेक्षा रहती है। किन्तु कुछ लोगो का कहना है कि साधुओ की सेवा करना तो धर्म है, मगर श्रावक की सेवा करना पाप है। इस तरह कहने वाले लोग इतना भी नहीं सोचते कि अकेले मे तो धर्म भी नही टिक सकता । धर्म के लिए सहधर्मी की सहायता की आवश्यकता है और इस कारण साधर्मी की सेवा करना कल्याण का मार्ग है। साधुओ को श्रावको की सहायता की आवश्यकता है और श्रावको को साधुओ की सहायता आवश्यक है। परन्त साध और श्रावक लिंग से सावर्मी न होने के कारण साध, श्रावको को सेवा नही कर सकते । मगर श्रावक, श्रावक की सेवा करे तो वह पाप का नही वरन् कल्याण का मार्ग है। गुरु और साधर्मी किसे कहना चाहिए, इस विषय का विवेचन किया जा चुका। ऐसे सुपात्र गुरु और सहधर्मी को सेवा करने से महान् फल की प्राप्ति होती है । अतएव गुरु और साधर्मी की सेवा करके कल्याण प्राप्त करो । तीसरे बोल मे धर्मश्रद्धा का फल बतलाया गया था और इस चौथे बोल मे गुरु और साधर्मी को सेवा की चर्चा की गई है। तीसरे और चौथे बोल के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार करने से स्पष्ट मालूम होता है कि जिसमें धर्म
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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