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________________ २१८-सम्यक्त्वपराक्रम (१) शब्दार्थ प्रश्न- भगवन् ! गुरु और साधर्मी की शुश्रूषा से जीवो को क्या लाभ होता है ? उत्तर-गुरु और सहधर्मी की सेवा-शुश्रूषा से विनीतता उत्पन्न होती है। विनययुक्त जीव अनासातनाशील होता है, अनासातनाशील जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव की दुर्गति से बच जाता है और जगत् मे यश-कीर्ति पाता हुअा अनेक गुण प्राप्त करता है तथा मनुष्य देवगति पाता है । सिद्धि और सद्गति के मार्ग को विशुद्ध करता है तथा विनय से सिद्ध होने वाले समस्त प्रशस्त कार्यो को साधता है और दूसरे बहुतो को उसी मार्ग पर चलाता है । व्याख्यान यह सूत्र का मूलपाठ है । नाम-सकीर्तन की महिमा वर्णन करते हुए ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि नाम और परमात्मा को एक रूप देखना चाहिए । इसी प्रकार प्रस्तुत सूत्र में परमात्मा और पारावक को एक रूप देखने के लिए कहा। है । यहा यह प्रश्न पूछा गया है कि 'भगवन् ! गुरु और सहधर्मी को सेवा-शुश्रुषा करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? इस प्रश्न पर विचार करते समय पहले यह देख लेना आवश्यक है कि गुरु किसे कहते हैं ? और किस उद्देश्य से गुरु बनाया जाता है ? गुरु शब्द का पदच्छेद करते हुए वैयाकरण कहते हैं कि 'गु' शब्द अन्धकार अर्थ का द्योतक है और 'रु' शब्द अन्धकार नाश का द्योतक है । इस पद
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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