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________________ १७२-सम्यक्त्वपराक्रम (१) करके धर्मश्रद्धालु व्यक्ति भोगो से विरक्त रहेगा और दूसरों के सुख के लिए आप कष्ट सहन करेगा। भर्तृहरि ने कहा है कि दृढवर्मी सत्पुरुप पराये हित के लिए स्वय कष्ट सहन करते हैं । लोग 'धर्म-धर्म' चिल्लाते हैं, मगर धर्म के इम मौखिक उच्चार से धर्म नही आ जाता । जीवन मे धर्म मूर्त स्वरूप तभी धारण करता है जव अपने सुख का बलिदान करके दूसरो को सुख दिया जाता है और दूसरो को दुख से बचाने के लिए सातावेदनीय के, उदय से प्राप्त होने वाले सुखो का भी परित्याग कर दिया जाता है। धार्मिक दष्टि से, दूसरो से पैसा लेना अच्छा है या दूसरो को पैसा देना अच्छा है ? यद्यपि इस प्रश्न के उत्तर मे यही कहा जायेगा कि पैसा देना अच्छा है - लेना नहीं, लेकिन इस उत्तर को व्यवहार मे सक्रिय रूप दिया जाता है या नहीं, यह विचारणीय है,। व्यवहार मे तो हाय पैसा, हाय पैसा की ध्वनि हो सर्वत्र सुनाई पड़ती है। फिर भले. हो दूसरो का कुछ भी हो-- वे चाहे जीयें या मरे । जव, इस प्रवृत्ति में परिवर्तन किया जाये और दूसरो के सूख में ही सुख मानने की भावना उद्भूत हो और अपने सुख के लिए दूसरे को दुख देने की भावना बदल जाये, तब समझना चाहिए कि धर्मश्रद्धा का फल हमे प्राप्त हो गया है। आज तो धर्म के विषय मे यही समझा जाता है कि जिससे अष्टसिद्धि और नव-निधि प्राप्त हो, वही धर्म है । अष्टसिद्धि और नव-निधि का मिलना ही धर्म का फल है। किन्तु शास्त्रकार जो बात बतलाते हैं, वह इससे विपरीत
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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