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________________ १५८ - सम्यक्त्वपराक्रम (१) भी पुरुष नही चाहता । तुम गाँव-गाँव घूमती हो । ऐसा कोई उपाय जानती हो तो बताओ जिसमे पुरुप मुझे चाहने लगें । सुकुमालिका की यह बात सुनकर ग्वालिका मतो ने अपने कानो मे उँगलियाँ डालकर कहा- 'वहिन ! उपाय बतलाना तो दूर रहा, मुझे ऐसी बात सुनना भी नही कल्पता । में तो सिर्फ वीतराग मार्ग का हो उपदेश दे सकती सती की यह बात सुनकर सुकुमालिका सोचन लगो 'वीतराग के भाग में कोई विशेष चमत्कार होगा, तभी तो यह सती कहती है कि मैं वीतराग मार्ग का ही उपदेश दे सकती हूं। मुझे कोई पुरुष नही चाहता तो न सही । धर्म तो सभी को स्थान देता है । मुझे भी देगा ही ।' इस तरह विचार कर सुकुमालिका ने ग्वालिका सती से कहा- आपको उस मार्ग का उपदेश देना नही कल्पता तो वीतरागमार्ग का उपदेश देना तो कल्पता ही है। मुझे उसी का उपदेश दीजिये ।' ग्वालिका सती ने उसे केसा और क्या उपदेश दिया था, यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता, परंतु ग्वालिका का उपदेश सुनकर सुकुमालिका इसी निश्चय पर आई कि अब किसी भी पुरुष को यह शरीर न सौपकर सयम के सेवन मे ही इसे लगा देना उचित है । कहने का आशय यह है कि ऐसी बाते सुनने का अवसर आये तब कान में उंगली डाल लेना ही उचित है । ऐसा प्रसंग तुम्हारे सामने उपस्थित होता है या नहीं, यह तो मुझे मालूम नही; पर हम साधुओ के समक्ष तो बहुत वार ऐसे अवसर आते रहते हैं । प्रस्तुत सम्यक्त्वपराक्रम नामक अध्ययन में यहाँ तक सवेद और निर्वेद का विचार किया गया है । इन दोनों f
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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