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________________ १५६ - सम्यक्त्वपराक्रम (१) सगति की है। कहा जा सकता है, क्या यह संभव है कि साधु की संगति करने पर भी कोई विषयभोग मे फँसे रहे ? इसका उत्तर यह है कि कितनेक साधु भी विपयभोग मे फँस जाते है तो साधारण गृहस्थ को तो बात ही क्या है ? ' इसी भाँति, साघु को सगति या सेवा करने से अमुक वस्तु मिलेगी, इस प्रकार की इच्छा अगर मन में रही तो समझना चाहिए कि वह वास्तव मे साधु की सगति या सेवा नही वरन् पुद्गलो की संगति या सेवा है । ऐसी दशा में विषयभोगो मे अधिक फँसना ही स्वाभाविक है। साधु-सगति सच्ची तो तभी कही जा सकती है, जब साधु के समागम से हृदय मे पुद्गल प्राप्ति की भावना उत्पन्न न हो, बल्कि प्राप्त पुद्गलो को छोडने को आन्तरिक प्रेरणा पैदा हो 17 शास्त्र कहता है कि आरभ - परिग्रह ही समस्त पापो का कारण है । अतएव साधु-सगति करके आरभ-परिग्रह से बचने का प्रयत्न करो, उलटे उसमें फँसने की चेष्टा मत करो । अगर सासारिक पदार्थों को ज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो उनमे फँसने की अभिलाषा ही न होगी । ससार के पदार्थ कामी पुरुषो के चित्त मे कामना उत्पन्न करते हैं और ज्ञानी पुरुषो के मन में ज्ञान पैदा करते है । उदाहरण के लिये, कल्पना कीजिये, एक वेश्या सिंगार सजकर बाजार मे निकली है । प्रथम तो ज्ञानी पुरुष उसकी ओर दृष्टि ही नही करेगा । कदाचित् अचानक नजर चली जायेगी तो वह विचार करेगा - 'इस स्त्री को पूवकृत पुण्य के उदय से ऐसा अनुपम सौन्दर्य प्राप्त हुआ है । किन्तु बेचारी मोह में पड़कर अपना इतना सुन्दर शरीर थोड़े-से पैसो के बदले बेच
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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