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________________ १३६ - सम्यक्त्वपराक्रम (१) कहा तो तुमने जबाव दिया कि मैंने अपने बाप के घर भी पत्थर उठाने का काम नही किया है । अब इस घटना से कुछ समझो और 'मैं बड़े घर की वेटी हू' यह अभिमान छोड दो । मैं तुम्हारे मायके का अभिमान नहीं सह सकता और न अपने माता-पिता का ही अपमान सह सकता हू मैं तुम्हे कष्ट देना नही चाहता, सिर्फ इतना कहना चाहता हू कि तुम समय को पहचानो और झूठा अभिमान मत करो ।' - पत्नी कुलीन थी । इस घटना से वह आगे के लिए सावधान हो गई । 1 इस उदाहरण द्वारा तुम भी समझ लो कि अनादिकाल से तुम जो कष्ट सहते आते हो, उन्हे भूलकर उस वहू की तरह समझते हो कि तुमने कष्ट सहे ही नही है । यह भूल है | आज तुम्हे पता नही है कि भूतकाल मे तुमने . कितने कष्ट सहन किये है और आज भी जिसे तुम सुख समझ रहे हो उसके पीछे क्या और कितना दुख रहा हुआ है । यह भी तो देखो । 1 f कहने का आशय यह है किं भार की दृष्टि से जैसे लोहा और सोना समान ही है, उसी प्रकार संसार का दुख भी दुःख ही है और ससार का सुख भी दुख है । जब देवो को भी दुखी कहा गया है तो ससार मे कौन अपने आपको सुखी कहने का दावा कर सकता है ? ससार के पदार्थों में सुख होता तो साधु-साध्वी आभूषण देने पर क्यो न लेते ? . जिन गहनो में तुमने सुख मान रखा है, वह गहने साधु को दोगे तो वह स्वीकार नही करेंगे, क्योकि वह गहने मे सुख नही मानते, बल्कि दुख ही मानते हैं । इसी कारण तुम }
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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