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________________ पहला बोल-१३१ बात है । कपाय को दूर करने से मिथ्यान्व दूर होता है और दर्शन की आराधना होती है। विशुद्ध दर्शन की आराधना करने वाले को कोई धर्मश्रद्धा से विचलित नही कर सकेगा, इतना ही नही किन्तु जैसे अग्नि मे घो की आहुति देने से अग्नि अधिक तीव्र बनती है, उसी प्रकार धर्मश्रद्धा से विचलित करने का ज्यों-ज्यो प्रयत्न किया जायेगा, त्योंत्यो धर्मश्रद्धा अधिक दृढ और तेजपूर्ण होती जायेगी । धर्मश्रद्धा मे किस प्रकार दृढ रहना चाहिये, इस विषय में कामदेव श्रावक का उदाहरण दिया ही जा चुका है। धर्म पर दढ श्रद्धा रखने से और दर्शन की विशुद्ध आराधना करने से आत्मा उसी भव मे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। कुछ लोग शून्यता को ही मोक्ष कहते हैं । जैनशास्त्र ऐसा नहीं मानता । जैनशास्त्रो का कथन है कि आत्मा के कर्म प्रावरण हट जाने पर आत्मा की समस्त शक्तियो का प्रकट हो जाना और आत्मा का दुख से विमुक्त होना ही मोक्ष है । आत्मा जब तक दुख से विमुक्त नहीं होता तव तक उसे विविध प्रकार के दुख भोगने ही पड़ते हैं । श्री भगवती सूत्र मे भगवान् से यह प्रश्न पूछा गया है कि-'हे भगवन् । दुखी दु ख का स्पर्श करता है या सुखी दुःख को स्पर्श करता है ?' इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा 'हे गोतम । दुखी ही दु.ख से स्पष्ट होता है, सुखी दुख से स्पृष्ट नहीं होता ।' इसके बाद चौवीस दंडको का विचार करते हुये देवो के प्रश्नोत्तर मे उन्हे भी दुखी कहा है । इस पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि देवलोक में देवो को तो दिव्य सुख प्राप्त है, फिर उन्हे दु.खी क्यो कहा गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि कर्म स्वय दु.ख
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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