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________________ १२८ - सम्यक्त्वपराक्रम ( १ ) करते है वैसा ही फल पाते है; इसी प्रकार ज्ञानियों ने तो वाणी का प्रकाश दिया है । उस वाणी के आधार पर जो अनुकूल कार्य करेगा उसे अनुकूल फल मिलेगा, जो प्रतिकूल काम करेगा उसे प्रतिकूल फल मिलेगा । सूर्य का प्रकाश होने पर भी अगर कोई जान-बूझकर गडहे मे गिरता है तो इसमे सूर्य के प्रकाश का क्या दोष है ? इसी प्रकार ज्ञानियो की वाणी मार्गदर्शक होते हुये भी अगर कोई उन्मार्ग में जाता है तो इसमे उस वाणी का क्या अपराध है ? कुरान मे एक जगह कहा है ' हे मुहम्मद ! जो स्वय नही बिगडता उसे मैं बिगाडता नही हू और जो स्वय नही सुधरता उसे मै सुधारता नही हूँ ।' अर्थात् विगाड और सुधार अपनी इच्छा और कार्य पर निर्भर है । शास्त्र मे भी यही बात कही गई है - 'अप्पाकत्ता विकत्ता य' अर्थात् आप स्वयं ही अपने हर्त्ता - कर्त्ता हैं, दूसरा आत्मा का कोई सुधार या विगाड नही कर सकता, अतएव अपनी आत्मा को ही सावधान बनाने की आवश्यकता है । आत्मा को सावधान बनाकर मोक्ष के अनुकूल कार्य किया जाये तो मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है । 'हे भगवन् ! सवेग का फल क्या है ?" यह प्रश्न भगवान् से पूछा गया है । इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा - सवेग से अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। और अनुत्तर धर्मश्रद्धा द्वारा अनन्तानुवधी क्रोध, मान, माया और लोभ का नाश होता है और उससे नवीन कर्मो का बध नही होता । अर्थात् अनन्तानुबधी कषाय के उदय से होने वाले पाप रुक जाते हैं । जिसे अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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