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________________ ९२४ - सम्यक्त्वपराक्रम ( १ ) कपाय को दूर करने के लिए अपने पापो की हृदय से आलोचना करना चाहिए । आलोचना पाप की होती है । वर्म की आलोचना नही होती । मगर आज उल्टी गंगा बह रही है। लोग धर्म का आलोचना करने है और पाप दवाया या छिपाया जाता है धर्म की आलोचना करना अर्थात् अपने शुभ कार्यों की स्वयमेव प्रशंसा करना और समाचार पत्रो में अपना छपा हुआ नाम देखने की लालसा रखना हो क्या दीनता है ? भगवान् ने कहा है कि अगर तुम आत्मकल्याण करना चाहते हो तो दीनता धारण करो और दीनना द्वारा हृदय में रहे हुए तीन शल्यो को, जो हमेशा दुख दिया करते हैं, बाहर सीना जो मनुष्य अपने गल्य रहने देता है और ऊपर से सुन्दर वस्त्र पहन लेता है वह वया अन्य के दुख मे बन सकता है ? इसी प्रकार ऊपर से वर्म करन वाला किन्तु हृदय मे शल्य वारण करने वाला क्या आत्मा को कमदुख से बचा सकता है ? नही । इसलिए हृदय मे दीनता लाने के लिए इस प्रकार विचार करो जानत हो निज पाप उदधि सम, जल - सीकर सम सुनत लरो । रज सम पर अवगुण सुमेरु करि, गुणगिरि सम रजते निदरो ॥ भक्त कहता है- हे प्रभो । मुझमे समुद्र के समान पाप भरे हैं । मेरे इन पापो मे से एक बूँद जितना पाप भी अगर कोई प्रकट कर देता है तो मैं उसके साथ बलपूर्वक झगडने लगता हू और दूसरे के सुमेरु जैसे गुण भी मैं रजकण के समान गिनता हू और उनकी निंदा करता हू । मैं
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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