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________________ ११८-सम्यक्त्वपराक्रम (१) परतत्रता से मुक्त करके स्वतन्त्रता प्राप्त कराता है और पतितावस्था मे से बाहर निकाल कर उन्नत बनाता है । धर्म के साथ 'अनुत्तर' विशेषण लगाने का कारण यह है कि बहुतेरे लोग पाप को भी धर्म का नाम देते हैं। जहा पास है या पाप का कोई भी कारण है, वहाँ धर्मतत्त्व नहीं है, यह बतलाने के लिए धम के साथ अनुत्तर विशेषण लगाया गया है । हृदय मे मोक्ष की अभिलापा होगी तो अनुत्तर धर्म के ऊपर ही श्रद्धा उत्पन्न होगी और जब अनुतर धर्म पर-दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है तो कोई दूसरी झझटो मे पटकने का चाहे जितना प्रयत्न करे, यहाँ तक कि देव और दानव भी धर्म से विचलित करने का प्रयत्न करे, फिर भी वह अनुत्तर धर्म से तिल भी विचलित नहीं होता । हृदय मे सच्चा सवेग होने पर अनुत्तर धर्म पर ऐसी अटल-अचल श्रद्धा उत्पन्न होती है और ऐसी सुदृढ एव अचल श्रद्धा होने पर ही हृदय मे सच्चा स वेग जागृत होता है । इस प्रकार अनुत्तर धर्मश्रद्धा और सवेग के बीच परस्पर कार्यकारणभाव सवध है। । अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस प्रकार की धर्मश्रद्धा का फल क्या है ? उत्तर यह है कि अगर कोई मनुष्य इस प्रकार को धर्मश्रद्धा के फलस्वरूप हाथी-घोडा वगैरह की आगा करे तो उसके लिए यही कहा जा सकता है कि अभी उसके हृदय मे मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न ही नही हुई है और अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा भी जागृत नही हुई है । वास्तव मे अनुत्तर धर्मश्रद्धा का ऐसा फल चाहना ही नही चाहिए । उसका सच्चा फल तो अनन्तानुवधी क्रोध मान, माया और लोभ का नष्ट होना है । अब यह विचार करना चाहिए कि अनन्तानुबधी क्रोध,
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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