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________________ पहला बोल-१०५ लालसा तो नही रहो हुई है ? अगर कामलालसा मौजूद हो तो आन्तरिक शत्रुओ पर विजय प्राप्त करके कामलालसा को भी दूर करो और अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा पैदा करो । धर्मश्रवण करने के लिए तो मेरे पास आये ही हो, अब धर्मश्रद्धा ही जागृत करना शेष रहता है। जब आन्तरिक शत्रु तुम्हारे ऊपर आक्रमण करें तो ऐसा विचार करो-हे आत्मा । आन्तरिक रिपुओ की चढाई के समय अगर तू छिपकर बैठा रहेगा तो तू उन पर विजय प्राप्त कर सकेगा ? युद्ध के समय छिप कर बैठ रहना वीरात्मा को शोभा नही देता । उदाहरणार्थ तुम पाक्षिके प्रतिक्रमण करते हो । पाक्षिक प्रतिक्रमण पन्द्रह दिन में किया जाता है। ऐसे समय आन्तरिक शत्र चढाई कर दें तो ऐसा विचार करना चाहिए कि, आत्मन् । पन्द्रह दिन मे यह अवसर मिला है । इस अवसर पर भी अतरग शत्रुओ को जीतने के बदले ससार का ही विचार करूँगा तो कोल्हू के बैल की तरह फिर-फिर कर उसी स्थान पर आ खडा होऊँगा। अतएव यही उचित है कि ऐसे अवसर पर कामनाओ मे न उलझ कर धर्मक्रिया द्वारा अतरग शत्रुओ, कामलालसा आदि को जीतने का ही प्रयत्न किया जाये । कदाचित् यह कहा जाये कि गृहस्थों को तो ससार की चीजो की आवश्यकता रहती ही है । इस आवश्यकता की पूर्ति अगर धर्म द्वारा की जाये तो क्या हानि है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि कामना करने से ही धर्म का फल मिलेगा, अन्यथा नही मिलेगा, ऐसा समझना भूल है । बल्कि कामना करने से तो धर्म का फल तुच्छ हो जाता है और कामना नहीं करने से अनत गुना फल होता है, तो
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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