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________________ अध्ययन का प्रारम्भ-८७ के लिए पाने थे और कुछ देव भगवान् के पास जाना अपना जिताचार-आचार-परम्परा समझ कर आते थे। इस प्रकार भगवान के समय मे भी ऐसी घटनाएं हुआ करती थी। यह हुई परोक्ष की बात । प्रत्यक्ष मे भी व्याख्यान मे आने वाले लोग भिन्न-भिन्न विचार लेकर आते है। लोग किसी भी विचार से क्यो न आवे, अगर भगवान की वाणी का एक भी शब्द उनके हृदय को स्पर्श करेगा तो उनका कल्याण ही होगा। भगवान् की वाणी का चम कार ही ऐसा है । पर विचारणीय तो यह है कि जब आये ही हो तो फिर शुद्ध भाव ही क्यो नही रखते ? अगर शुद्ध भाव रखोगे तो तुम्हारा आना शुद्ध खाते में लिखा जायेगा। कदाचित् शुद्ध भाव न रखे तो तुम्हारा आना अशुद्ध खाते मे लिखा जायेगा । तो फिर यहाँ आकर अशुद्ध खाते मे अपना नाम क्यो लिखाना चाहते हो? इसके अतिरिक्त भगवान की वाणी सुनकर वह हृदय मे धारण न की गई तो भगवान की वाणी की आसातना ही होगी। अतएव भगवान् की वाणी हृदय मे धारण करो और विचार करो कि मनुष्य अपना मुख आप ही नही देख सकता, इस कारण उसे आदर्श-दर्पण की सहायता लेनी पडती है । भगवान् की वाणी दर्पण के समान है । मनुष्य दर्पण की सहायता से अपने मुख का दाग देखकर उसे धो सकता है उसी प्रकार भगवान् की वाणी के दर्पण मे अपनी आत्मा के अवगुण देखो और उन्हे धो डालो। भगवान् की वाणी का यही चमत्कार है कि वह आत्मा को उसका अवगुण रूप दाग स्पष्ट बतला देती है। अगर तुम अवगुण दूर करके गुणग्रहण की विवेकबुद्धि रखोगे तो भगवान् की वाणी का चमत्कार तुम्हे अवश्य दिखाई देगा।
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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