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________________ ५४] [भगवान् महावीर कल्पसूत्र मे इनके लिये-'दख्खे, दख्खपइन्ने, पडिरूवे, आलीणे, भदए तथा विणीए'-इन छः विशेपणो का उपयोग हुआ है। इन विशेषणो के द्वारा इनके स्वभावादि के सम्बन्ध मे कुछ प्रकाश प्राप्त होता है। ये 'दक्ष' थे, अर्थात् सर्व कलाओ मे कुशल थे। ये 'दक्ष-प्रतिज्ञ' थे अर्थात् की गई प्रतिज्ञा का पालन पूर्णरूपेण करते थे। 'प्रतिरूप' थे अर्थात् आदर्श रूपवान् थे। 'आलीन' थे अर्थात् कछुए के समान अपनेआप मे गुप्त थे। 'भद्रक' थे अर्थात् शुभ लक्षणो से विभूषित थे। और 'विनीत' थे अर्थात् माता, पिता एव गुरुजनों के प्रति विनयशाली थे। ये बाल्यकाल से ही बडे निर्भीक थे। एक बार ये अपने समवयस्क मित्रो के साथ क्रीडा कर रहे थे। उस समय किसी वृक्ष की जड से एक भयंकर सर्प निकला। उसे देखकर सभी कुमार भयभीत होकर भाग गये; किन्तु ये अपने स्थान से तनिक भी विचलित नही हुए। इतना ही नही अपितु ये सर्प के निकट गये और उसे धीरे से उठाकर दूर रख दिया। अनन्तर सभी कुमार वापस लौट आये और उन्होने पूर्ववत खेल आरम्भ किया। इनका शरीर अनुपम कान्ति से युक्त और अत्यन्त सुदृढ था। तीर्थडुर की आत्माएं अनादिकाल से संसार मे परोपकारी स्वभाववाली, स्वार्थ को प्रधान न माननेवाली, सर्वत्र समुचित क्रिया का आचरण करनेवाली, दीनंतारहित, सफल कार्यों को ही करनेवाली,
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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