SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [४१६ शिक्षापद] धर्म मे दृढता रखना, (४) आशारहित तप करना, (५) सूत्रार्थ-ग्रहण करना, (६) शरीर के शृगार का परित्याग करना, (७) अज्ञात कुल की गोचरी करना, (८) इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर वह ज्यादा मिले, ऐसी भावना न रखना, (९) तितिक्षा धारण करना, (१०) आर्जव-भाव रखना, (११) शुचि रखना-व्रतो मे दोष न लगाना, (१२) सम्यग्-दृष्टि बनना, (१३) समाधियुक्त होना, (१४) पचाचार का पालन करना, (१५) विनययुक्त होना, (५६) धृतियुक्त होना, (१७) सवेग धारण करना, (१८) चित्त व्यवस्थित रखना, (१६) सुन्दर अनुष्ठान का पालन करना, (२०) आस्रव का निरोध करना, (२१) आत्मा के दोषो का परिहार करना, (२२) सर्व प्रकार के कामभोगों से विरक्त होना, (२३) त्याग-धर्म मे आगे बढना, (२४) कायोत्सर्ग करना, (२५) प्रमाद न करना, (२६) नियत समय पर क्रियानुष्ठान करना, (२७) ध्यान धरना, (२८) योगों को सवर मे लगाना, (२९) मारणान्तिक कष्ट को सहन करना, (३०) स्वजनादि के सग का परित्याग करना, (३१) दोष लगने पर प्रायश्चित का ग्रहण करना और (३२) अन्त समय में आराधक होने का सकल्प धारण करना, ये बत्तीस शिक्षापद ज्ञानियो ने कहे हैं। नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवजणाए । रागस दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२६॥ [उत्त० म० ३२, गा०२]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy