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शिक्षापद]
[४१३. क्रोध, मान, माया और लोभ को जीतकर तथा पाँचो इन्द्रियो को. वश मे कर अपनी आत्मा का उपसहार करना चाहिये, अर्थात् प्रमाद की ओर बढी हुई आत्मा को पीछे हटाकर धर्म मे स्थिर करनी चाहिये।
जसं कित्तिं सिलोगं च, जा य वंदणपूयणा । सबलोयंसि जे कामा, तं विज्जं परिजोणिया ।।६।।
[सू० श्रु० १, अ० ६, गा० २२] यश, कीर्ति, प्रशसा, वन्दन, पूजन और सर्व लोक मे जो भी कामभोग है, इनको अपकारी समझकर छोड देना चाहिये। अट्ठावयं न सिक्खिज्जा, वेहाइयं च णो वए ॥१०॥
[सू० श्रु० १, भ० ६, गा० १७ ] जुआ खेलना मत सीखो और धर्म के विरुद्ध मत बोलो ।
आवण्णा दीहमद्धाणं, संसारम्मि अणन्तए । तम्हा सबदिसं पस्सं, अप्पमत्तो परिव्वए ॥११॥
[उत्त० अ० ६, गा० १३] अज्ञानी जीव इस अनन्त ससार मे जन्म-मरण के बडे लम्बे चक्कर मे पडे हुए है। इसलिए उनकी सारी दिशाओ का अवलोकन करता हुआ मुमुक्षु पुरुष सदा प्रमादरहित होकर इस ससार मे विचरे । जे रक्खसा वा जमलोइया वा,
जे वा सुरा गंधवा य काया।