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________________ ३८] [प्रस्तावना • गार्हस्थ्य और सन्यास भगवान महावीर सन्यान-धर्म के समर्थको मे प्रमुन्न थे। उनकी भाषा मे सन्यास का अर्थ था अहिंसा। वह जीवन मे हो तो गृहत्यवेष मे भी कोई सन्यानी हो सकता है और यदि वह न हो तो साचु के वेप मे भी कोई सन्यासी नही हो सकता। अहिंसा और सत्यान ये दोनो पर्यायवाची हैं। भगवान् ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि 'को गारमावसे' ? गृह मे रहना कोन चाहेगा ? इसका अर्थ है हिमा मे रहना कौन चाहेगा ? भगवान् ने कहा कुछ मिनुओ से गृहस्य अच्छे होते हैं। उनका सयम प्रधान होता है-अहिंसा विकसित होती हैं। जिनका सयम पूर्ण परिपक्व हाता है, अहिंसा पूर्ण विकसित होती है, वह भिन्नु नव गृहस्थो से श्रेष्ठ होता है। उनका सन्यास किसी वेशभूपा या बाहरी उपकरण मे वंचा हुआ नहीं था। वह उन्मुक्त था। इसलिए उन्होने कहा- गृहस्य के वेश मे भी वह व्यक्ति परमात्मा बन सकता है जो अहिंसा के चरम विक्राम तक पहुंच जाता है। वेष और धर्म के निश्चित सबन्ध को उन्होने कभी मान्य नहीं किया। उनकी वाणो है एक व्यक्ति रूप को छोड़ देता है, धर्म को नहीं छोड़ता। एक व्यक्ति रूप को नही छोडना, धर्म को छोड़ देता है। एक व्यक्ति दोनों को नहीं छोडता । एक व्यक्ति दोनों को छोड़ देता है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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