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________________ ३६२] [श्री महावीर वचनास्त नाई च बुद्धिं च इहज्ज पास, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं। । तम्हाऽतिविज्जे परमं ति णच्चा, सम्मत्तदंसी ण करेइ पावं |||| [आ० अ०३, 3० २] हे मानव ! इस संसार में जन्म और जरा की जो दो महान् दुःख है, उन्हे तू देख और सभी जीवों को सुख प्रिय लगता है और दुःख लप्रिय लगता है, इस गत को गहराई से समझ । उपर्युक्त वात का ज्ञान होने से ही ज्ञानी पुरुष सम्यक्त्वधारी बनकर हिंसादि पाप नही करते है। जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणंजे करति भावेणं। अमला असंकिलिट्ठा, ते हॉति परित्तसंसारी ॥८॥ [उत्त० २०३६, गा०२६०] जो जिनवचन में श्रद्धान्वित है, जो जिनवचन मे कही गई क्रियाएं भाव पूर्वक करते है, जो मिथ्यात्व आदि मल से दूर है तथा जो रागद्वेषयुक्त तीन भाव धारण नहीं करते, वे मर्यादित ससारवाले बनते हैं, अर्थात् उसका भवभ्रमण का प्रमाण अल्प हो जाता है। धम्मसद्धाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाएणं सायासोक्खेसु रज्जमाण विरज्जइ ॥६॥ [उच० अ० २६ , गा०३}.
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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