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________________ [ ३५३. वीर्य और वीरता] बालवीर्य कहलाता है और जब क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक भाव में रहता हो तब जो स्फुरण होता है वह अकर्म अथवा पण्डितवीर्य कहलाता है। मनुष्य मे इन दोनों मे से एक वीर्य का स्फुरण अवश्य होता है। सत्थमेगे तु सिक्खंता, अतिवायाय पाणिणं । एगे मंते अहिज्जंति, पाणभूयविहेडिणो ॥३॥ [सू० श्रु० १, भ० ८, गा० ४] कुछ व्यक्ति शस्त्रविद्या सीख कर प्राणियो की हिंसा करते हैं, तो कुछ व्यक्ति मन्त्रादि बोलकर यज्ञादि अनुष्ठानो मे प्राणियों की विडम्बना करते हैं ( इसे बालवीर्य समझना चाहिये)। माइणो कट्ट माया य, कामभोगे समारमे । हंता छित्ता पगम्भिता, आयसायाणुगामिणो ॥४॥ [सू० श्रु० १, म०८, गा०५] केवल अपने ही सुख का विचार करनेवाले मायावी पुरुष मायाकपट का आधार लेकर काम-भोग के निमित्त असख्य प्राणियों की हिंसा करते हैं और इस तरह वे उनका हनन करनेवाले, छेदन करनेपाले तथा पाछ लगानेवाले बनते हैं। मणमा वयसा चेव, कायसा चेत्र अन्तसो। आरओ परओ वा वि, दुहा वि य असंजया ॥५॥ [स् ध्रुः १, म०८, गा०६]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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