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________________ 'भिक्षु की पहचान] [२५५ भयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए य जे स भिक्खू ॥१८॥ [दश० अ० १०, गा० १६] जो जातिमद, रूपमद, काममद, श्रुतमद, तथा अन्य मदों का वर्जन करके धर्मध्यान मे मग्न रहता हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। पवेयए अज्जपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि। निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिंग, न यावि हासंकुहए जे स भिक्खू ॥१६॥ [दश० अ० १० गा० २० ] जो महामुनि आर्यमार्ग को कहता हो, जो सयममार्ग मे स्थिर रहता हो और दूसरो को भी सयममार्ग मे स्थिर रखता हो, जो संसार को त्यागने के पश्चात् कुशीलचेष्टित आरम्भादि कार्य नहीं करता हो तथा हास्य उत्पन्न करनेवाली चेष्टा न करता हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। बहुं सुणेई कन्नेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छइ । न य दिळं सुयं सम्बं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ॥२०॥ दिश० भ०८ गा० २०] भिक्षु कानो से बहुत-सी बाते सुनता है और आँखो से अनेक
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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