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________________ २४४ ] [श्री महावीर-वचनामृत अनुग्रह करके मेरे इस आहार मे से थोड़ा भी ग्रहण करे तो मै संसारसमुद्र पार पा जाऊं।' साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिजा जहक्कम । जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहि सद्धिं तु भुंजए ॥४७॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० ६५] इस प्रकार विचार कर मुनि सर्व साधुओं को प्रीतिपूर्वक निमत्रित करे और उनमे से जो भी साघु उसके साथ आहार करना चाहे तो उसके साथ आहार करे। विवेचन इसका क्रम ऐसा है कि प्रयम दीक्षावृद्ध को आमन्त्रित करे, बाद में उन से उतरते हुए क्रमवाले साधुओं को आमन्त्रित करे, बाद मे उनसे उतरते हुए क्रमवालों को आमन्त्रित करे। इस प्रकार सभी को आमन्त्रित करे। अह कोइ न इच्छिन्जा, तओ भुंजिज्ज एक्कओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं ॥४८|| [दश अ०५, उ० १, गा०६६] यदि आमत्रण देने के बाद कोई सावु आहार का इच्छक न हो तो उक्त नाचु अकेला ही चौड़े मुखवाले प्रकाशयुक्त पात्र मे, वस्तु नीचे न गिरे ऐसी पद्धति से यतनापूर्वक आहार करे। पडिग्गहं संलिहित्ता णं, लेवमायाए संजए । दुगन्धं वा सुगन्धं वा, सन्नं मुंजे न छड्डए ॥४६॥ [दा अ०५, ८० २, गा०१}
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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