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[श्री महावीर-वचनामृत ___गोचरी के लिये जाता हुआ साघु अपनी नजर को - बहुत ऊपर अथवा बहुत नीचे न रखे, अभिमान अथवा दीनता धारण न करे, स्वादिष्ट भोजन मिलने से प्रसन्न न होवे अथवा न मिलने से व्याकुल न बने और अपनी इन्द्रियो तथा मन को निग्रह कर उसे सन्तुलित रख सदा विचरण करे।
दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे । हसंतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥१४॥
[दश० अ०५, उ० १, गा० १४] गोचरी के लिये जानेवाला साघु जल्दी-जल्दी न चले, हंसताहँसता न चले अथवा वात-चीत करता न चले। वह सदा धनवान और निर्घन दोनो प्रकार के कुलो मे समान भाव से जाय ।
पडिकुटुं कुलं न पविसे, मामगं परिवज्जए । अचियत्तं कुलं न पविसे, चियचं पविसे कुलं ॥१५॥
[दश० भ० ५, उ० १, गा९१७ ] साधु को चाहिए कि वह शास्त्रनिषिद्ध कुल मे गोचरी के लिये न जाए, गृह के स्वामी ने इन्कार किया हो तो उस घर मे न जाए, तथा प्रीतिरहित गृह में भी प्रवेश न करे। वह अनुराग-श्रद्धावाले गृहों मे ही प्रवेश करे।
समुयाणं चरे भिक्खू, कुलमुच्चावयं सया। नीगं कुलमइक्कम्म, ऊमढं नाभिधारए ॥१६॥
[दए० अ०५, ८० २, गा० ०५]