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________________ १६८] [श्री महावीर-वचनामृत अन्नप्पमत्ते धणमेसमाण, पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च ॥३॥ [उत्त० अ० १४, गा० १४] जो पुरुष काम-भोग से निवृत्त नही हुआ है, वह रात-दिन सन्तप्त रहता है। और तदर्थ इधर उधर भ्रमण किया करता है । साथ ही स्वजनो के लिये वह दूषित प्रवृत्ति से धन प्राप्त करने के प्रयत्न मे ही जरा एव मृत्यु को प्राप्त होता है। आउक्खयं चेव अवुज्झमाणे, ममाइसे साहसकारि मंदे । अहो य राओ परितप्पमाणे, ___ अडेसु मूढे अजरामरेन्च ॥४॥ [सू० ० १, अ० १०, गा० १८] आयुष्य पल-पल घट रहा है। इस तथ्य को न समझ कर मूर्ख मनुष्य 'मेरा-मेरा' करते हुए नित्य प्रति नया साहस करता रहता है।। वह मूढ अजरामर हो इस प्रकार अर्थ-प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है और आर्तध्यान वशात् दिन और रात सन्तप्त होता है। माहणा खत्तिया वेस्सा, चण्डाला अदु बोक्कसा । एसिया वेसिया सुद्दा, जेहि आरम्भनिस्सिया ॥शा परिग्गहनिविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवडई । आरंभसंभिया कामा, न ते दुःखविमोयगा ॥६॥ [सू० श्रु० १, अ० ६ गा० २-३]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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