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[ श्री महावीर वचनामृत विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए । अणिच्चं तेसिं विन्नाय, परिणामं पुग्गलाण य ॥४॥
[दश० अ० ८, गा० ५६] शब्द, रूप, गन्च, रस और स्पर्गरूप समस्त पुद्गलों के परिणामों को अनित्य समझ कर ब्रह्मचारी साधक मनोज्ञ विषयों मे आसक्त न बने।
पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा। विणीयतिण्हो विहरे, सीईभूएण अप्पणा ॥४८॥
[दश० अ०८, गा०६०] शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शरूप पुद्गल परिणामों का यथार्थ स्वरूप जानकर ब्रह्मचारी साधक अपनी आत्मा को शान्त करे तथा तृष्णारहित बन कर जीवन विताये।