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धारा : १२:
सत्य तं सच्चं भयवं ॥१॥
[प्रश्न० द्वितीय सवरद्वार] वह सत्य भगवान है।
पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उवहिए मेहावी मारं तरइ ॥ २ ॥
. [भा० श्रु० १, अ० ३, उ०३] हे पुरुष! तू सत्य को ही वास्तविक तत्त्व जान। सत्य की आज्ञा मे रहनेवाला वह बुद्धिमान् मनुष्य मृत्यु को तैर जाता है।
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं क्यावए ॥३॥
[दश० अ० ६, गा० ११] अपने स्वार्थ के लिए अथवा दूसरे के लाभ के लिये, क्रोध से अथवा भय से, किसी की हिंसा हो ऐसा असत्य वचन खुद नहीं बोलना चाहिये, ठीक वैसे ही दूसरे से भी नही बुलवाना चाहिये।
मुसावाओ य लोगम्मि, सव्वसाहूहि गरिहिओ। अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ॥४॥
[दश० भ० ६, गा० १२]