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धर्माचरग]
[११६ मिथ्यात्व आदि दोषो से रहित और आत्म-प्रसन्नलेश्या से युक्त धर्म एक जलाशय है और ब्रह्मचर्य एक प्रकार का शान्ति-तीर्थ । इसमे स्नान करके मै विमल, विशुद्ध और सुशीतल होता हूं। ठीक वैसे ही कर्मों का नाश करता हूं।
विवेचन-कुछ मनुष्य नहाना-धोना और बाहर से शुद्ध रहने को ही धर्म मान बैठे है, जबकि धर्म अन्तर की शुद्धि के साथ मुख्य सम्बन्ध रखता है । यह अन्तर की शुद्धि तभी प्राप्त होती है जब मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायादि दोष दूर कर दिये जाते है ओर आत्मा के परिणामों को शुद्ध रखा जाता है।
आत्मा के परिणामों की योग्यता समझने के लिये भगवान् महावीर ने छह लेश्याओं का स्वरूप प्रकट किया है। उनमे कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं आत्मा के अशुद्धतम, अशुद्धतर और अशुद्ध परिणामो का सूचन करनेवाली है तथा पीत, पद्म तथा शुक्ल-ये तीन लेश्याएं आत्मा के शुद्ध-शुद्धतर---शुद्धतम परिणामो का सूचन करती है । अतः धर्माराधक को चाहिये कि वह सदा शुद्ध लेश्याओं मे ही रहे।
धर्माराधना मे ब्रह्मचर्य का महत्त्व भी बहुत है । जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसका मन सदा विषय-विकार से दूर रहता है, और उससे अनन्य शान्ति मिलती है।
सक्षेप मे यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के लोकोत्तर उच्च धर्म का जो आचरण करता है, उसके सब मल दूर होते है. उसकी सभी अशुद्धियाँ दूर होती हैं और उसके अन्तर के सारे ताप मिटकर