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________________ ३०] [श्री महावीर-वचनामृत काली, नीली, (स्लेटिया अथवा हरी), लाल, पीली, वेत, पाण्ड (कुछ हल्की पीली झांई वालो) और पनक ( अत्यन्त सूक्ष्म रजोरूप ) । जवकि खर पृथ्वी छत्तीस प्रकार की है। पुडवी य सकरा वाल्या य उबले सिला य लोणूसे । अय-तउय-तंब-सीसग-रुप्प-सुबन्ने य वयरे य ॥६॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण-पवाले । अभपडलन्भवालुय बायरकाये मणिविहाणे ॥७॥ गोमेजए य रुयगे अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय-मसारगल्ले भूयमोयग-इंदनीले य ॥ ८॥ चंदण-गेल्य-हंसगम्भेपुलए सोगंधिए य बोधच्चे। चंदप्पह-वेरुलिए जलकंते सरकते य ॥६॥ [उत्तः न०३१, गा३ से ] १ : शुद्ध पृथ्वो। २: कंकड़। ३: वालुका-रेती। ४ : उपल-छोटे पत्थर । ५: बिला-पत्यर की बड़ी चट्टान । ६: लवण-समुद्र के जल से तैयार होने वाला नमक । ७:तारी मिट्टी-क्षार। लोहा-खदान मे होता है तव । वाद मे रासायनिक
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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