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________________ शब्दब्रम्हद्वारा परब्रम्हनी उपासना नमस्कार मत्र ज्ञायक भावने नमवानु शीखवे छे ज्ञायकभाव ए आत्मानो स्वभाव छे रागद्वेषादि भावो विभाव छे विभाव तरफ ढळी रहेला आत्माने स्वभाव तरफ वाळवो ए नमस्कार मत्रनु कार्य छ ‘अरिह' ए वर्णमाला शब्दब्रम्हनु सक्षिप्त स्वरूप छे शब्दव्रम्ह ए परब्रम्हनु वाचक छे अने परब्रम्ह शुद्ध ज्ञानस्वरूप छे जेमा केवळज्ञान रहेलु छे, अने ज्ञान शिवाय वीजा कोई रागादि भावो रहेला नथी, ते शुद्ध परब्रम्ह स्वरूप उपास्य छे, पूज्य छे, आराध्य छे ते शिवायनु वीजु स्वरूप अनुपास्य छ, अपूज्य छे, असेव्य छे, ए जैन सिद्धान्त छे सेव्यतानु अवच्छेदक वीतरागत्वादि गुणनु होवापणु छे वीतरागत्व सर्वज्ञत्वनी साथे व्याप्त छ, तेथी वीतराग अने सर्वज्ञ एवं केवळजान स्वरूप अने तेनी उपासनाज परम पदनी प्राप्तिनु वीज छ निरतर कबूल राखवी ते व्यवहार धर्मनु मूळ छे अने तेज निश्चय धर्म पामवानी साची योग्यता छे 'नमो ' मत्रनी उपसना ए कृतज्ञता गुणना पालन द्वारा स्वतत्रता तरफ लई जनारी सिद्ध प्रक्रिया छे, तेथी 'नमो' मत्रने सेतुनी उपमा घटे छे भवसागरने तरवा माटे अने मोक्ष नगरमा पहोचवा माटे ते सेतुनी गरज सारे छे व्यक्तमाथी अव्यक्तमा ते लइ जाय छे प्रकृतिथी पराङ्मुख वनावी पुरुषनी सन्मुख दोरी जाय छे तेथी द्वीप छे, दीप छे, त्राण छ, शरण छे, गति छे अने आधार छे । नमो' मत्र ते दुष्कृत गरे करावनार होवाथी द्वीप, दीप अने त्राण छे सुकृतानुमोदना करावनार होवाथी गति अने प्रतिष्ठा रूप छे तथा दुष्कृत अने सुकृतथी पर अवा आत्मतत्त्वनी अभिमुख लइ जनार होवाथी परम गरण गमन रूप पण छे ए रीते एक नमो मत्र ज भव्य जीवोने परम आलबन अने परम आधार रूप बनीने भवदु खनो विच्छेद करावनार तथा शिवसुखनी प्राप्ति करावनार याय छे 'नमो' मत्र स्यूलमायी सूक्षमा जवानो मत्र छ सूक्ष्ममाथी सूक्ष्मतरमा अने सूक्ष्मतरमाथी सूक्ष्मतममा जवा माटेनी प्रेरणा पण ' नमो' मत्रमाथी ज मळे छ अणुथी पण अणु वन्या विना महानथी पण महान एवा तत्वनी प्राप्ति शक्य नथी 'नमो' मत्रवडे 'अणोरपि अणीयान् अने ‘महतोऽपि च महीयान्' बन्ने विशेपणोयुक्त एवा परमपदनी सिद्धि थाय छे शांत रसनो उत्पादक : 'नमो अरिहताण' ए महामत्र छ, शाश्वत छ, गान रसनु पान करावनार छे शात रस एटले राग द्वेप विनियुक्त केवळ 'जान' व्यापार तेने नमस्कार, · अरिह' एटले मोहादि शत्रुओनो नाशक. ते त्राणस्वरूप छे 'अरिह' शब्द कृतज्ञता अने स्वतंत्रता ! __'नमो' ए कृतज्ञतानो मत्र छ, अने स्वतत्रतानो पण मत्र छे कृतज्ञता गुण ए व्यवहार धर्मनो पायो छे, अने स्वतत्रता गुण ए निश्चय धर्मनु मूळ छे, आत्मद्रव्य सपूर्ण स्वतत्र छे अनादि कर्मसबध होत्रा छना कर्मद्रव्य अने आत्मद्रव्य सर्वथा पथक छे, मात्र सयोग मबध छे. अने ते वियोगना अतवाळो छे कर्मना सबबने आदि अने अन छे आत्मद्रव्य अनादि अनत छे आत्म- द्रव्यनी म्वतत्रता अनुभवीने, जगत् समक्ष तेने बनावनार एज पुरुषो खरेवर उपकारी छे ते उपकारने हृदयमा धारण करीने, तेमना प्रन्ये नित्य आभारनी लागणीवाला रेवु अने ए उप- कारनो बदलो वाळवानी पोतानी अगक्तिने १७०] [श्री कुभोजगिरी शताहि महोत्सव
SR No.010457
Book TitleKumbhojgiri Jain Shwetambar Tirth Shatabdi Mahotsava Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKubhojgiri Tirth Committee Kolhapur
PublisherKumbhojgiri Tirth Committee Kolhapur
Publication Year1970
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size3 MB
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