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________________ लेन पूजा पाठ समय ६७ चौपाई १६ मात्रा | 1 दरश विशुद्ध धरे जो कोई । ताको आवागमन न होई । विनय महा धारें जो प्रानी । शिव वनिता की ससी बखानी ॥२॥ शील सदा दिढ़ जो नर पालै । सो औरनकी आपद टालै ॥ ज्ञानाभ्यास करें मनमाही । ताके मोह महातम नाहीं ॥३॥ जो सवेग-भाव विस्तारै । सुरग-मुकति-पद आप निहारै । दान देय मन हरप विशेखं । इह भव जस परभव सुख देखे ॥४॥ जो तप तपै सपे अभिलाषा । चूरे करम-शिसर गुरुभाषा ॥ साधु-समाधि सदा मन लावे । तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावै ॥५॥ निनि-दिन वैयावृत्य करेंया । सो निहचे भव-नीर तिरैया ॥ जो अहंत भगति मन आने । सोजन विषय कषाय न जाने ॥६॥ जो आचारज- भगति करै है । सो निर्मल आचार घर है ॥ बहुश्रुतत भगति जो करई । सो नर संपूरन श्रुत धरई ॥७॥ - नगति करै जो ज्ञाता । लहै ज्ञान परमानन्द-दाता ॥ पट आवश्य काल जो साधै । सो ही रत-त्रय आराधे ॥८॥ eta-प्रभाव करें जो ज्ञानी । तिन शिव मारग रीति पिछानी || चलल अड्न सदा जो ध्यावै । सो तिर्थकर पदवी पावै ॥६॥ " ॐ दर्शनविशुद्धया टिपोटशकरणेभ्य. पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा । दोहा - एही सोहल भावना, सहित धरै व्रत जोय । देव- इन्द्र-नर- वंद्य-पद, 'द्यानत' शिवपद होय ॥ १० ॥ [ आशीर्वाद ]
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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