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________________ जैन पूजा पाठ सप्रह ३५ - ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारपिनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ जड़कर्म घुमाता है मुझको यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी। मैं रागीद्वेषी हो लेता, जव परिणति होती है जड़ की। यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हूँ। ही देवगावगुरुभ्योऽष्टर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ जगमें जिसको निजकहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। मेंआकुलव्याकुल होलेता,व्याकुलका फल व्याकुलता है। में शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचर मेरी। यह मोह तड़प कर टूट पड़े,प्रभुसार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ ही देवशास्त्रमुग्भ्यो मोक्ष फलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ क्षण भर निजरसको पी चेतन,मिथ्या मलको धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनंद अमृत पीता है। अनुपम सुख तव विलसित होता,केवल रवि जगमग करता है दर्शन वल पूर्ण प्रगट होता, येही अर्हन्त अवस्था है। यह अर्घ समर्पण करके प्रभु, निजगुनका अर्घ बनाऊंगा। और निश्चित तेरे सशप्रभु! अर्हन्त अवस्था पाऊंगा ॥ ही देवमानारुभ्योऽनयंपदप्राप्तये भ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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