SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन पूजा पाठ १७ > ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ अक्षय पदके बिना फिरा जगत की लख चौरासी योनि में । अष्ट कर्म के नाश करन को अक्षत तुम ढिग लाया मैं ॥ अक्षयनिधि निज की पाने अब देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥ ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेम्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अक्षयपद प्राप्तये पक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ पुष्प सुगन्धी से प्रतम ने शील स्वभाव नशाया है । मन्मथ वाणों से विध करके चहुॅ गति दुःख उपजाया है ॥ स्थिरता निजमे पाने को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥ > ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ षट्स मिश्रित भोजन से ये भूख न मेरी शान्त हुईं। आतम रस अनुपम चखने से इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई ॥ सर्वथा भूख के मेटन को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याॐ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्य, सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ श्री मनन्तानन्त
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy