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________________ 4.10 तीनलोक के जीव करो जिनवर की सेवा । नियम थकी करदन्ड धस्यो देवन के देवा ।। प्रातिहार्य तौ वने इन्द्र के वनै न तेरे। अथवा तेरे वनै तिहारे निमित्त परेरे ॥ २० ॥ तेरे सेवक नाहिं इसे जे पुरुषहीन धन । धनवानों की ओर लखत वे नाहिं लखतपन ॥ जैसे तमथिति किये लखत परकास थितीकं । तैसैं सूझत नाहिं तमथिति मन्दमतीकू ॥२१॥ निज वृध स्वासोच्छास प्रगट लोचन टमकारा । तिनको वेदत नाहि लोकजन मूढ विचारा ॥ सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमूरति ज्ञान सुलच्छन । सो किमि जान्यो जाय देव रूप विचच्छन॥२२॥ नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरततने हैं। कुलप्रकाशिक नाथ तिहारो स्तवन भनें हैं। ते लघु धी असमान गुणनकों नाहिं भजे हैं। सुवरण आयो हाथि जानि पाषाण तजै हैं ॥२॥ सुरासुरन को जीति मोहने ढोल • बजाया । तीनलोक में किये सकल वशि यों गरमाया । तुम अनन्त बलवन्त नाहिं ढिग आवन पाया। मरि विरोध तुम थकी मूलते नाश कराया ॥२४॥
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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