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________________ १०४ जैन पूजा पाठ मप्रद अष्टकरम मैं एकलौ, ये दुष्ट महादुःख देत हो। कहूं इतर निगोदमें मोकं पटकत करत अचत हो। ___ म्हारी दीनतनी सुन बीनती ॥ प्रभु कबहुँक पटक्या नरकमें, जठे जीव महादुःस पाय हो। नित उठि निरदई नारकी, जठे करत परस्पर घात हो ॥म्हारी॥ प्रभु नरकतणा दुःख अब कहूं, जठे कर परस्पर घात हो। कोइयक वांध्यो संभसों, पापी दे मुद्गरकी मार हो ॥म्हारी॥ कोइयक काटें करोतसों, पापी अद्भुतणी दोय फाड़ हो । प्रभु इह विधि दुःख भुगत्या घणा, फिर गति पाई तिर्यञ्च हो । म्हारी॥ हिरणा बकरा बाछड़ा पशु दीन गरीब अनाथ हो। प्रभु मैं ऊट बलद भैसा भयो, ज्यांप लदियो भार अपार हो ॥म्हारी॥ नहिं चाल्यो जठे गिर पस्यो, पापी दे सोटन की मार हो । प्रभु कोइयक पुण्य संजोगसू, मैं पायो स्वर्ग निवास हो॥ म्हारी०॥ देवांगना संग रमि रह्यो, जठं भोगनिको परिताप हो। प्रभु सग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर अति अनुराग हो ॥ म्हारी॥ कवहुँक नन्दन-वन विप प्रभु, कबहुँक वन-गृह मांहि हो। प्रभु इह विधि काल गमायकै, फिर माला गई मुरझाय हो । म्हारी. देव तिथी सब घट गई, फिर उपज्यो सोच अपार हो। सोच करत तन खिर पड्यो, फिर उपज्योगर्भमे जाय हो।।म्हारी॥ प्रशु गर्भतणा दुःख अब कह, जाठे सकडाई की ठौर हो। हलन-चलन नहि कर सक्यो, जठै सघन कीच घनघोर हो। म्हारी॥
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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