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________________ [ ४१ ] महा अपराधी, दियो स्वर्ग पहुंचाय । कथानाथ - णिक समदृष्टी, कियो नरक दुखदाय || प्रभु०॥३॥ सेव असेव कहा चलै जियकी, जो तुम करो खु न्याय । द्यानत सेबक गुन गहि लीजै, दोष सबै छिटकाय || प्रभु० ||४| (७७) राग विलाबल । प्रभु तुम सुमरनहीमें तारे ॥ टेक ॥ सूअर सिंह नौल वानरने, कहाँ कौन व्रत धारे ॥ प्रभु० |१|| सांप जाप करि सुरपद पायो, स्वान श्याल भय जारे । भेक वोक गज अमर कहाये, दुरंगति भाव विदारे ॥ प्रभु० ॥२॥ भील चोर मातंग जुगनिका, बहुतनिके दुख टारे । चक्री भ रत कहा तप कीनौ, लोकालोक निहारे ॥ प्रभु० || ३ || उसम मध्यम भेट् न कीन्हों, आये शरन उबारे । धानत राग दोष बिन स्वामी, पाये भाग हमारे ॥ (७८) राग भैरों । ऐसो सुमरन कर मेरे भाई, पवन भै मन कितहुँ न जाई ॥टेक॥ परमेसुरसों सांच रहीजै लोकर जना भय तज दीजे ॥ ऐसी० ॥ १ ॥ जप अरु नेम दोउ विधि धार, आसन प्राणायाम सं
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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