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________________ t [ ३६ ] ( ७३ ) रे ! तू आतम हित गयो जग भमतें, कर रे ! कर रे ! कर कर रे ॥ टेक ॥ काल अनन्त भव भवके दुख हर रे || कर रे० ||१|| लाख कोटि भव तपस्या करतैं, जितो कर्म तेरी जर रे । स्वास उस्वासमाहिं सो नासै, जब अनुभव चित धर रे || कर रे० ||२|| काहे कष्ट सहे बनमाँहीं, राग दोष परिहर रे । काज होय समभाव विना नहिं, भावौ पचि पचि मर रे ॥ कर रे० ॥३॥लाख रे सीखकी सीख एक यह, आतम निज, पर पर कोट ग्रंथको सार यही है, द्यानत लख भव तर रे || कर रे० ||४|| 1 ( ७४ ) भाई ज्ञानका राह सुहेला रे | भाई० ॥टेक॥ दरव न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला रे || भाई ० ||१|| लड़ना नाहीं मरना नाहीं, करना बेला तेला रे । पढ़ना नाहीं गढ़ना नाहीं, ना चन गावन मेला रे || भाई० ॥ २ ॥ न्हान नाहीं खाना नाहीं, नाहिं कमाना धेला रे । चलना नाहीं जलना नाहीं, गलना नाहीं देला रे || भाई ० ॥३॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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