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________________ [ २४ 1 विधि जिय, इन विकलपमहिं शिवपद सधत न । निरविकलप अनुभव मन लिधि करि, करम सघन वनदहन दहन-कन ।। कहत० ॥४॥ हो भैया मोरे ! कहु कैसे सुख होय ॥टेक। लीन कषाय अधीन विषयके, धरम करै नहिं को. य॥ हो भैया० ॥१॥ पाप उदय लखि रोवत भोदू, पाप तजै नहिं सोय । स्वान-बान ज्यों पाहन संघे, सिंह हनै रिपु जोय ।। हो भैया० ॥२॥ धरम करत सुख दुख अघसेती, जानत हैं सब लोय । कर दीपक लै कूप परत है, दुख पैहै भव दोय ॥ हो भैया० ॥३॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म भुलायो, देव धरम गुरु खोय । उलट चाल तजि अब सुलटै जो, द्यानत तिरै जग तोय ॥ हो भैया०॥४॥ (४५) प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरी ॥टेक॥ गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ॥ प्रभु० ॥१॥ शक जनम भरि सहस जीभ धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावै, उलू कहै किमि सूरा ॥ प्रभु० ॥२॥ चमर छत्र
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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