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________________ [ १६ । प्रानी ॥ समझत० ॥३॥ या जग माहिं तुझे तारन को. कारन नाव वखानी । द्यानत सो गहिये निहचैसों हूजे ज्यों शिवथानी ॥ समझत० ॥४॥ धिक ! धिक ! जीवन समकित बिना ॥टेक॥ दान शील तप व्रत श्रुतपूजा, आतम हेत न एक गिना ॥ धिक० ॥१॥ ज्यों बिनु कन्त कामिनी शोभा, अंबुज बिनु सरवर ज्यों स्कृना । जैसे बिना एकड़े बिन्दी त्यों समकित विन सरव गुना॥धिक जैसे भूप बिना सब सेना, नीव विना मन्दिर चुनना । जैसे चन्द बिहूनी रजनी, इन्हैं आदि जानो निपुना ॥ धिक० ॥३॥ देव जिनेन्द्र, साधु गुरु, करुना धर्मराग व्योहार मना । निहचै देव धरम गुरु आतमः द्यानत गहि मन वचन तना ॥ धिक०॥४॥ (३६) गुजरातीभाषा-गीत । जीवा ! शं कहिये तने भाई का पोता । रूप अनूप तजीन; शामाट, विषयी थाई ॥ जीबा० ॥१॥ इन्द्रीना विषय विषथकी मौटा ज्ञान नू अनंत गाई । अमृत छोड़ीनै विषय विष पीधा साता तो नथी पाई ।। जीवा० ॥२॥ नरक निगो
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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